स्याही लाए सवेरा
किसी महान इंसान ने सच ही कहा है कि “कलम की धार, तलवार की धार से भी तेज़ होती है” और इतिहास में घटित कई घटनाएँ इसकी साक्षी रही हैं। इसे आप कथाकारों की लेखन शक्ति ही कह सकते हैं कि जब कोई लेखक कथा, काव्य, निबंध, गद्य में अपनी बात रखता है तो पाठक और श्रोता उन पात्रों को, उन किरदारों को स्वयं अपने समक्ष देख पाते हैं। ऐसा माना जाता है कि “लिखना छलकने का दूसरा नाम है”। एक लेखक तब तक नहीं लिख सकता जब तक वो भावनाओं की असीम ताकत से पूरी तरह से भर नहीं जाता और फिर जो छलकता है, उस कलाम में इतनी शक्ति होती है कि किसी भी अंधेरे में नए सवेरे की रोशनी ला सकती है।
लेखन में वो शक्ति होती है जो हमारे दुख में दबे भावों को बेड़ियों से मुक्त कर देती है। रचनाएँ, कविताएँ, गीत, ये वो कहन हैं जो हम कहना तो चाहते हैं पर कह नहीं पाते। लेखक उन्हीं भावों को शब्द रूपी नवरंग फूलों में संजोकर रचनाओं की माला में पिरो देते हैं। इसलिए उस हार को देखते ही हमारे अंदर अपनत्व की भावना उमड़ पड़ती है। एक शायर ने ठीक ही कहा था कि “शायर वो होते हैं जो आपके होठों के शब्दों को आपके कानों तक पहुँचाते हैं ”। चाहे वो थक कर चूर कोई मजदूर हो या कलम चलाने वाला कोई बड़ा अफसर, चाहे वो कोई आम आदमी हो या देश का भार लिए अपने कंधों पर कोई प्रधानमंत्री, चाहे दुख का ढलता सूरज हो या सुख का आविर्भाव, वो रचनाएँ ही हैं जो सभी जाति, वर्ग, कुल के लोगों को मानसिक स्तर पर शांति का एहसास कराता है। वो लेखक की शक्ति ही है जो किसी भी इंसान की आत्मा को छू लेती है।
अंग्रेज़ी शासन में वो उत्पीड़न और दमन का दौर था जब क्रांतिकारियों को लेखन के ज़रिए मानसिक बल देने का कार्य देश के कवियों ने किया। उनमें से एक थे राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर। ब्रिटिश सरकार की नौकरी करते हुए भी उन दिनों दिनकर जी आज़ादी के महायज्ञ में शब्दों की आहुति देते रहे। उन्हें अपने उच्च अधिकारियों से इन्हीं वजहों से कई बार चेतावनी मिली। शायद यही कारण रहा होगा कि 1938 से 1945 के बीच दिनकर के 22 तबादले हुए। फिर भी दिनकर जी ने लिखना नहीं छोड़ा। उन्होंने क्रांतिकारियों के लिए कई कविताएँ लिखीं जिसमें “मंज़िल दूर नहीं”, “भारत के शार्दुल बोलो”, “सिंहासन खाली करो के जनता आती है” जैसे कई प्रसिद्ध कविताएँ शामिल हैं। दिनकर जी के अलावा कई रचनाकार थे जिन्होंने देश के आज़ादी के लिए कई रचनाएँ लिखी जिसमें महाकवि जयशंकर प्रसाद, अज्ञेय, महादेवी वर्मा, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, रवींद्र नाथ टैगोर, सुमित्रानंदन पंत, बाबा नागार्जुन जैसे महान लेखक शामिल हैं। जयशंकर प्रसाद जी की कविता “बढ़े चलो, बढ़े चलो” तो इतनी प्रसिद्ध हुई कि देश के क्रांतिकारियों का नारा बन गई। 1947 में भारत को आज़ादी मिलने का बहुत बड़ा श्रेय देश के तमाम कवियों और लेखकों को भी जाता है।
देश की आज़ादी के बाद 1961 में जब रानी एलिजाबेथ भारत के दौरे पर आई तो तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू जी का उनका बढ़ चढ़कर स्वागत करना देश के कवियों को रास नहीं आया। महाकवि बाबा नागार्जुन ने इसी के खिलाफ एक कविता लिखी - “आओ रानी हम ढोएँगे पालकी”। ये व्यंग लोगों में काफी प्रचालित हुई। 1962 में जब भारत चीन से युद्ध हार गया तब दिनकर जी ने संसद में कविता के जरिए तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू जी की विदेश नीतियों की कड़ी आलोचना की। इसका असर 1967 के युद्ध में भी जरूर पड़ा होगा। 1967 के युद्ध में भारत की विजय से दिनकर जी इतने गदगद हुए कि लाल किले के कवि सम्मेलन से उन्होंने पूरे देश को बधाई दी। लेखकों को जब भी कोई आशा की कोई ज्योति दिखाई पड़ती है वो अपने कलम के जरिये उसे अभिव्यक्त जरूर करते हैं। 1966 में जब बिहार में अकाल पड़ी और अकाल के बाद जब परिस्थिति वापस से सामान्य हुई तो उस खुशी के नए सवेरे को दर्शाती एक रचना बाबा नागार्जुन ने लिखी - “कई दिनों तक”। 70 के दशक में जब इंदिरा गाँधी जी के तानाशाही रवैये से समूचा देश बेचैन था उस वक़्त भी सियासत के खिलाफ कई लेखकों ने लिखा। सरकारी नौकरी करने वाले महाकवि दुष्यंत कुमार ने भी इस दमन के विरुद्घ कई प्रसिद्ध कविताएँ लिखीं। उन्होंने इंदिरा जी के खिलाफ लिखा था कि “एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है, ये परिस्थिति देख शायर हैरान है”। मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारका प्रसाद मिश्र ने दुष्यंत जी को तलब किया और उन्हें सरकार के खिलाफ ना लिखने की सलाह दी। लेकिन दुष्यंत जी फिर भी तानाशाही के खिलाफ लिखते रहे। 1974 में उन्होंने लिखा
“सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं।मेरी चाह है कि ये सूरत बदलनी चाहिए। मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए।”
उस दौर में ये कविता बहुत ज्यादा प्रसिद्ध हुई और जयप्रकाश आंदोलन में ये कविता हर जगह नारे के रूप में उपयोग होने लगी। “एमर्जेंसी” के दौर में जब अखबारों पर भी सरकार के खिलाफ लिखने में प्रतिबंध था, उस दौर में भी लेखकों ने अपनी रचनाओं से सरकार की कड़ी आलोचना की। 1975 में दुष्यंत जी ने एक और प्रसिद्ध कविता “भूख है तो सब्र कर” शासन के खिलाफ लिखी। दुष्यंत जी की एक और कविता उन दोनों काफी प्रचालित हुई -
“कहाँ तो तय था चिरागां हरेक घर के लिए, कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए”। साथ ही साथ उन्होनें “इस नदी की धार से ठंडी हवा आती तो है” और “ तुम्हारे पाओं के नीचे” जैसी प्रसिद्ध कविताएँ लिखीं। लेखकों ने सत्ता परिवर्तन में हमेशा एक अनूठा किरदार निभाया है। नया सवेरा लाने में इनकी असीम योगदान को कदाचित नकारा नहीं जा सकता। किसी ने सच ही कहा है कि कविता सत्ता का व्यापक विरोध है। जिस दिन कविता सरकार का समर्थन करने लगेगी उस दिन या तो सत्ता ख़त्म हो जाएगी या कविता ख़त्म हो जाएगी।
पर आज के ज़माने में भी लेखक की दशा वही है जो तब हुआ करती थी। आज भी सम्पूर्ण रूप से लेखक बनने से लोग कतराते हैं। इसका मूल कारण भी हम आम जनता ही हैं। हमने कभी लेखकों को यथोचित मान दिया ही नहीं। बस उनके जाने के बाद उनकी याद में श्रद्धा सुमन अर्पित करते रहे। आज भी ऐसे लेखक हैं जो अपनी कलम की ताकत का लोहा मनवा चुके हैं। वो अलग बात है कि उन्हें जितनी ख्याति मिलनी चाहिये वो अब तक मिल नहीं पायी। हमें उन रचनाकारों को गुमनामी के अंधेरे से बाहर निकलना होगा। हमें लेखकों को सम्मान दिलाने में अपना योगदान देना होगा अन्यथा भूखे मरते लेखकों के साथ उनकी कला भी कहीं अंधेरे में गुम ना हो जाए। लेखकों के कल्याण हेतु और कदम उठाने होंगे। हमें लेखन के प्रति अपने सोच में सुधार लाना होगा। तभी हमें ऐसे रचनाकार मिलेंगे जो अपने स्याही के बल पर घोर अंधकार में भी सवेरा ला सकें। लेकिन उसके लिए विश्वास की नवचेतना हमें अपने अंदर जगानी होगी। तभी जाकर ये सूरत बदलेगी। राह कठिन है पर नामुमकिन नहीं। दुष्यंत जी ने ठीक ही कहा है कि -
“कौन कहता है कि आसमान में सूराख हो नहीं सकता,, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो…”
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