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Showing posts from August, 2018

Paperboats

Art By : Amrita Pattnaik “Shall I go to the rain?” I asked myself in fuss. Standing under under a shed, Waiting for the bus. The rain was incessant, Quenching the thirst of the dust. & I was ambivalent in that romantic mid August. I was in a hurry & Wanted the rain to stop. But my plans were bedevilled With every falling drop. I had no “dare” to step into the rain in those attire. Ironed shirt, polished shoes were stuck in the middle of the mire. Today's appointment & some stats Were written on my palm. I was freaked out but Said to myself - “keep calm”. I stepped out, & then hauled back As there was money in my wallet. This was the first time, I was going to be late. I had to reach somewhere With those assignments and reports. Then I suddenly noticed Some children, playing with paperboats. They were completely wet And were giggling a lot. All were curiously Running behind the paperboat.

प्रेम की कीमत

Art By : Ananya Behera अपनी कलाई पर राखी देखकर, मेरे मन में हुआ एक स्पन्दन। आज के समाज में कितना पावन रह गया है भावनाओं का पर्व रक्षाबंधन? मेरे मन में जागा एक विवाद बिल्कुल सीधा सादा। पहले के और आज के रक्षाबंधन में अन्तर है कितना ज्यादा। फर्क यह नहीं कि रेशम की डोर अब बन गयी है सुंदर मोती की राखी। आधुनिकता के साथ भावनाओं में तब्दीली हुई है काफी। पहले इस पर्व में प्रेम का जुड़ाव था बहुत ही ज्यादा। जब राखी के बदले भाई, देते थे रक्षा का वादा। लड़ते झगड़ते भाई के मन को भी ये पर्व टटोलता था कुछ ऐसा। कि वचन देते थे दिल से वे कि बहन का साथ देंगे हमेशा। पर आजकल लोग, कहाँ भावनाओं से रीझते हैं। आज तो लोग पैसों से राखी खरीदते हैं। वाह रे मानव! तेरी ये कैसी आधुनिक युक्ति। “रक्षा के बंधन से पैसे देकर मुक्ति।” शायद कुछ ही लोग समझते हैं, राखी के धागे का मर्म। बाकी को केवल समझ आती है, रुपए - पैसों का धर्म। श्रीकृष्ण की अँगुली के चोट पर जब द्रोपदी ने अपनी साड़ी का टुकड़ा बांधा था। तब एक बहन के रूप में उन्होंने द्रोपदी

कोई फरिस्ता सा हो!

कोई फरिस्ता सा हो, रहस्यमयी पहलू रखके, कोई किताब सा हो, कोई ऐसा हो, दिल के अरमानों सा हो, जो मेरी ख़ामोशी को मुझसे पहले समझ ले, जो गिरने से पहले ही, जमीं पर रोक ले, जो मेरे हताश हो रोने से पहले, एक प्यार भरी मुस्कान दे, और गले लगा कर कहे, कोई तुमसा नहीं हो, बस तुम ही हो! कोई, फरिस्ता सा हो, ज़िन्दगी के एक कोने में उसके साथ एक अलग सा रिश्ता सा हो, उसके साथ वो नज़दीकियां हो, मैं बांट सकूँ, उससे अपनी कमजोरियाँ हो, उसके साथ एक अलग लगाओ हो, मरहम करदे ज़िन्दगी के ज़ख्मों को, कि वो ऐसा घाव हो, वो परिंदा सा हो कोई, जो उड़ के मुझे, आसमान छूना सिखाये, मुझे आजमाए, कभी बहोत हँसाये, कभी थोड़ा शर्माए, और अगर हो जाये कभी गलती तो प्यार से डाँट लगाये। वो एक अंतहीन कविता सा हो, जो बस मैंने लिखा, और सिर्फ मेरे लिए हो, कोई फरिस्ता सा हो। जो मेरे ख़ुदा को भेजे, मेरे दिल के पैगाम सा हो, और उस दुआ का अनोखा अंजाम सा हो कोई फरिस्ता सा हो, उसके साथ दिल का एक अलग रिश्ता सा हो वो जैसे लाल गुलाब के बाघ में सफ़ेद और पीले गुलाब सा हो, एक नायाब सा बंध

एक अनोखी विदेश यात्रा।

Art By : Ananya Behera  बचपन से ही मन में मेरी थी विदेश देखने की आशा। फिर एक दिन माँ को मैंने बताई अपनी अभिलाषा। माँ ने कहा चाहता है तो जा छुट्टियों में घुम आना। पर आते वक़्त मेरे लिए कोई तोहफ़ा जरूर लाना। माँ और धरती माँ से विदा लेकर, धारण कर के देशी वेश। हवाई जहाज से उड़कर पहुँचा मैं पहली दफा विदेश। देखने और समझने के लिए विदेश का नज़ारा। मुझे लेना पड़ा एक गाइड का सहारा। वहाँ था काफी ठंड का असर,, फिर भी हुए हम अग्रसर। गाइड :- “मैं बताना चाहता हूँ, आपकी जानकारी हेतु। इस देश में पूरे साल रहती है शीत ऋतु।” मैंने कहा :- “ये कैसा है इस देश का रसम। मेरे देश में तो देखे जाते हैं दुनिया के सारे मौसम।” देखने उस देश का गुज़र बसर,, हम फिर हुए अग्रसर। गाइड :- “ये देखिए इन लोगों के चेहरे पे हँसी। यही है बड़े दिन के वार्षिक जश्न की खुशी।” मैंने कहा :- “काफ़ी अच्छा है आपका ये विचार। पर मेरे भारत में तो होता है हर महीने कोई ना कोई त्योहार।” एक बिल्डिंग दिखाकर गाइड कहता है:- जितना भी बड़ा हो आपका भारत। पर न

कुछ दूर सा है!

कुछ दूर सा है! कुछ धुँधला, कुछ साफ़ सा है, सर पर सहर सा कुछ दबाव जोर सा है, चीख सा, कुछ कमजोर सा है, शांत हूँ, पर अंदर कुछ शोर सा है, उस दिन से कुछ नजदीक, कुछ दूर सा है। उम्र छोटी है पर, ख्वाहिशें कुछ करने की, हासिल करने की मंज़िले, कुछ डोर सा है, फीकी है, पर जरूरत पर मोर सा है। कुछ है दिल में, महफ़िल में खड़ा हूँ, पर खुद में कुछ कमजोर, हाँ कमजोर सा है।। आशा है, निराशा है, पर हौसले पे, परिंदे की उड़ान, कुछ दूर सा है, खुश हूँ, कि तकलीफ में, आगे बढ़ना है कि थमना, मिशाल बनाना है कि मशाल, खुद में हूँ गुम, कुछ कहानी, खुदा की खींची दस्तूर सा है। कुछ तो है, कुछ नूर सा, कुछ खालीपन,, रस्ते पर, कुछ फ़तेह हासिल करने का, कुछ गुरूर सा, अकेले होना का, इस दुनिया में, अपने माँ बाप को खुश रखने का, दो वक़्त की रोटी का जुगाड़ करना, साँसों में उबाल तो नहीं, पर इरादा कुछ मगरूर सा है।। मौत शायद दूर है, उसे भी डर है, की ये मेरा न, कुछ फितूर सा है, कुछ किस्मत का कसूर सा है, कुछ दूर सा है ।।।।।।।।।।।।।।।।।। -Shiva,, 2aug/8.34pm

We are the Brothers...

We are the Brothers ...  At Jhumri Talaiya, Burla Cold Coffee at Kaalia, Burla Preet Tripathy It started with a friend request I ignored it like the rest... A call from a mutual friend of us... Made us travel in a single bus... Then talk started formally in facebook.. . I tried to be informal but my hand shook... Infront of the auditorium I saw u first.... Among the grumbling crowd..Among the dust.. First day of the college, you booked my seat in front of the girls... Where should I concentrate on the difficult equations or the beautiful curls... Subham Ghosh Then came a serious bub, The third idiot from sambalpur hub.... Each one of us was wrong about the other.... First impression is not the last impression, Mind it brother.... Time passed by.... We laughed aloud...  To cover the dead in us with a shroud..... We told each other, the so called secrets... I will not tell now... But they were great...