Art By : Ananya Behera |
अपनी कलाई पर राखी देखकर,
मेरे मन में हुआ एक स्पन्दन।
आज के समाज में कितना पावन रह गया है
भावनाओं का पर्व रक्षाबंधन?
मेरे मन में जागा एक विवाद
बिल्कुल सीधा सादा।
पहले के और आज के रक्षाबंधन में
अन्तर है कितना ज्यादा।
फर्क यह नहीं कि रेशम की डोर अब
बन गयी है सुंदर मोती की राखी।
आधुनिकता के साथ भावनाओं में
तब्दीली हुई है काफी।
पहले इस पर्व में प्रेम का
जुड़ाव था बहुत ही ज्यादा।
जब राखी के बदले भाई,
देते थे रक्षा का वादा।
लड़ते झगड़ते भाई के मन को भी
ये पर्व टटोलता था कुछ ऐसा।
कि वचन देते थे दिल से वे
कि बहन का साथ देंगे हमेशा।
पर आजकल लोग,
कहाँ भावनाओं से रीझते हैं।
आज तो लोग
पैसों से राखी खरीदते हैं।
वाह रे मानव! तेरी ये
कैसी आधुनिक युक्ति।
“रक्षा के बंधन से
पैसे देकर मुक्ति।”
शायद कुछ ही लोग समझते हैं,
राखी के धागे का मर्म।
बाकी को केवल समझ आती है,
रुपए - पैसों का धर्म।
श्रीकृष्ण की अँगुली के चोट पर जब
द्रोपदी ने अपनी साड़ी का टुकड़ा बांधा था।
तब एक बहन के रूप में उन्होंने
द्रोपदी को अपने दिल का टुकड़ा माना था।
तब अगर कृष्ण ने तोल दिया होता
द्रोपदी को कंचन से।
और मुक्त हो जाते अपने
कर्तव्य और वचन से।
तो द्रोपदी की रक्षा की गुहार,
हो जाती बेकार।
अधर्म के कलंक से मानव कौम,
हो जाती शर्मसार।
बहन का अपने भाई की आरती उतारना,
प्रतीक है श्रद्धा और प्रकाश का।
ये त्योहार नहीं है पैसों का,
ये त्योहार है विश्वास का।
बहन का भाई के हाथ में राखी बाँधना।
उस रिश्ते का प्रतीक है, जो अटूट है।
भाई के मुँह तक मीठा पहुँचाती बहन
प्रेम के सैलाब का प्रतिरूप है।
ये पल दुनिया की हर कीमत से कीमती है,
नायाब है, पाक है।
प्रेम को पैसों से तोलना,
शर्मनाक है, महापाप है।
-दीपक कुमार साहू
-Deepak Kumar Sahu
19th August 2014
11:36:30
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