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कहानी अभी खत्म नहीं हुई है - अध्याय 3



अध्याय 3
हम बुआ के घर पहुँच चुके थे। अंदर घुसा तो मैंने देखा कि इन छह सालों में बहुत कुछ बदल चुका था। उनकी जो लंबी चौड़ी ज़मीन थी उस पर उन्होंने दो तल्ला छत का घर बना लिया था। जिसमें छह कमरे, तीन स्नानघर और एक छत थी। सामने एक खुला आँगन था जिसमें एक हैण्डपम्प था जिसे वहाँ के लोग चापाकल भी कहते हैं। उस आँगन में एक अमरूद का पेड़, एक अनार का वृक्ष और चार - पाँच अलग प्रकार के फूल के वृक्ष या ये कह लो कि पौधा था। उस बड़े से आँगन के आगे इन्होंने दो छत के गोदाम बनाए थे। उन दो गोदामों के बीच एक संकरा रास्ता निकलता था जो आगे एक और खुले आँगन की ओर खुलता था। और उसी के आगे थी सड़क। आगे के दो गोदाम इन्होंने भाड़े में दिए थे।

मैंने अंदर जाकर बुआ, फुफा जी के चरण स्पर्श किए। मेरी बुआ के तीन बेटे हैं। सबसे बड़े का नाम श्याम। मंझले का राम और छोटे बेटे का नाम कृष्णा। इनके अलावा एक बेटी भी है। जिनका नाम है इंदु। इंदु दीदी की शादी बहुत सालों पहले हो चुकी थी। मैंने इनके भी चरण स्पर्श किए। मैंने देखा कि शादी जैसा कोई माहोल ही नहीं था। सभी आलस्य में बैठे हुए हैं। मैंने तभी अपनी मानसिकता बदल ही ली। समझ गया कि ये विवाह में व्यस्त थे इसीलिए नहीं बल्कि गर्मी में अस्त - व्यस्त थे इसीलिए नहीं आए स्टेशन में। मैंने पानी पीने की जब तलब जताई तब बुआ ने कहा दीदी तुम्हारी नींबु का रस बना रही है। मैंने अपनी प्यास को और थोड़ी देर रोक लिया। फिर सभी वापस बतियाने लगे।

उधर से इंदु दीदी भी एक तरबूज लेके आ गई और बातें करते - करते उसे भी काटने लगी। हम सभी को तरबूज दिया और बातों का सिलसिला यूँ ही चलता रहा। तरबूज खाने के बाद भी मेरी प्यास खत्म नहीं हुई। मैंने सोचा कि प्यासे को स्वयं ही पानी के पास जाना होगा। मैं चापाकल के पास गया। पानी बहुत ठंडा था। जमीन से जो निकला था। फिर मैंने नहाने का सोचा। कपड़े लेकर मैं चापाकल के पास गया। तभी वहाँ कृष्णा आ गए। कृष्णा मेरी ही तरह बारहवीं की परीक्षा दे चुके थे। पर उम्र में मुझसे बड़े थे। उन्होंने मेरे खातिर नहाने हेतु तीन बाल्टी पानी भर दिए। मैंने खुशी - खुशी स्नान किया। इतनी गर्मी में इतने ठंडे पानी से नहाकर मेरा मन तृप्त हो गया।

नहाकर जब मैं अंदर गया तो मैंने आलोक को देखा। आलोक इंदु दीदी का बेटा है। आलोक मेरे माता पिता का चरण छूता है। फिर मेरी माँ अपने बैग से समपापड़ी के दो पैकेट आलोक को देती है। और एक थैले में ठेकुआ, श्याम जी को देती हैं। पिछली बार हम जब आए थे तब भी मेरी माँ ने उन्हें ठेकुआ दिया था। क्या है कि श्याम जी को मेरी माँ के हाथ से बनी ठेकुआ बहुत पसंद है। इसीलिए उन्होंने फोन करके विशेष तौर पर मेरी माँ से मँगवाया था। जो नहीं जानते उन्हें मैं बता दूँ कि लिट्टी, चोखा और ठेकुआ बिहारियों की सबसे ज्यादा प्रसिद्ध पकवान होती है। ठेकुआ खाकर जब सभी ने तारीफें की तब मेरी माँ ने बताया कि शादी के बाद भी उन्हें ठेकुआ बनाना नहीं आता था। उन्होंने मेरी बड़ी माँ से सीखा था। इससे जुड़ा एक और राज़ उन्होंने खोला। पहली दफा जब वह इस पकवान में निपुण नहीं हुई थीं तब की बात है। उस समय वह जब हमारे गाँव गई थी, मेरी दादी के कहने पर उन्होंने ठेकुआ बनाया। ईश्वर की कृपा से सही नहीं बनी। टूटी हुई बनी. मेरी दादी ने उस समय उन टूटे हुए ठेकुए को गाँव भर को दिखाया था ये कहते हुए कि मेरी बिदेशी पुतोह ने बनाया है । धीरे धीरे समय के साथ वह इस कला में निपुण हो गई पर आज उस निपुणता को देखने हेतु मेरी दादी जीवित नहीं है।
खैर यह तो पुरानी कहानी है। हमारी यह नई कहानी अभी खत्म नहीं हुई है.....

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