आज एक कहानी सुनाता हूँ,
जिसमें एक सुंदर झोपड़ है।
है जिसमें एक मेहनती बाप
और एक बेटा जो लोफर है।
पिता अपना पेट काट - काटकर
थोड़े पैसे जुटाता था।
उन पैसों को चुराकर बेटा,
हर महीने हजारों रुपए उड़ाता था।
बुरी संगति का निखरता असर
उसके ऊपर यौवन का जोश।
दिखावटी प्रवृत्ति में ही
बेटा रहता था मदहोश।
बेटे का जीवन था मानो,
चंद्र ग्रहण की निशा।
बहुत बुरी थी उसकी दशा।
बिल्कुल गलत थी जिसकी दिशा।
एक रात बेटा फिर
खोल रहा था तिजोरी।
पिता ने अब पकड़ ली
बेटे की चोरी।
पिता गुस्से से कहता है
मैं हर दिन खून पसीना बहाता हूँ।
तब जाकर तेरे भविष्य के लिए।
कुछ पैसे जुटा पाता हूँ।
बेटा कहता है - ये पैसा तो मेरे लिए है
तो क्यूँ आप अकड़ रहे हैं।
इस छोटी सी बात को
इतना क्यूँ पकड़ रहे हैं।
बाप कहता है - जीवन की असलियत से
तू बिलकुल है अंजान।
इसीलिए तुझे लगता है
पैसा कमाना है बिलकुल आसान।
पिता : तो ठीक है, मैं भी देखना चाहता हूँ,
तेरे नसीब में क्या है लिखा।
तू हजारों रुपए उड़ाता है ना,
चल पचास रुपए कमाकर दिखा।
अपने जीवन में आत्मसम्मान
और पिता के बातों का मान।
दोनों वजहों से बेटा
बनाना चाहता था अपनी पहचान।
अगले ही दिन बेटा निकला
काम की खोज में।
वह लड़का जो पूरे जीवन
केवल रहा था मौज में।
हर जगह से 'ना' सुनकर
बेटा हुआ हताश।
वादा पूरा ना कर पाने के भय में
बेटा हुआ निराश।
फिर बेटे को काम मिला
पर काम था मजदूर का।
बेटे ने फिर भी हाँ कर दी,
क्योंकि वो मजबूर था।
काम करते हुए बेटा करता है,
कामयाब होने की मन्नत।
उसे अब समझ में आता है कि
क्या होती है मेहनत।
उसे मेहनत करते देख उसके
दोस्त आवारा हस्ते हैं।
वो कहता है, उसने जीवन में
चुने नागवारा रस्ते हैं।
धूप में कड़ी मेहनत करके,
लेकर अपनी आश।
जब जाता है बेटा मालिक के पास।
तो मिलते हैं उसे केवल रुपए पचास।
जब बेटा, दस रुपए के पाँच सिक्के
पिता के हथेली पर रखता है।
तब हाथों में उछालकर पिता
उसका जीवन परखता है।
सुबह के सजे सँवरे चेहरे पर
थी शाम को गर्द।
कड़ी मेहनत के बाद था
पूरे बदन में दर्द।
गंदे कपड़े, हाथों में खरोंच, चेहरे पर खुशी
ये था बेटे का हाल।
देखते-देखते सिक्कों को,
पिता घर के कुएं में देता है डाल।
पिता की हरकत देख,
फ़ूट पड़ता है बेटे का क्रोध।
खरी - खोटी सुनाकर बेटा,
करता है पिता का विरोध।
पिता : मैंने तेरे एक दिन की मेहनत को, पानी में डाला,
ये तुझे इतना झुलसा रहा है।
तू तो कई सालों से मेरी मेहनत
पानी में डालता आ रहा है।
भले ही अजीब था
पिता का प्रयास।
पर हो ही गया बेटे को
अपनी गलतियों का एहसास।
तभी से छोड़ दिया उसने
अपने आवारा दोस्तों का साथ।
थाम लिया उसने अब,
मेहनत का बढ़ता हाथ।
दिखावटी प्रवृत्ति छोड़ अब बेटा
रोज काम पर जाता था।
मेहनत कर के अपनी रोटी
अपने बलबूते कमाता था।
एक दिन जब बेटा
काम से लौटकर आया,
तब पिता ने बेटे को
उसके पाँच सिक्के लौटाया।
पिता ने कहा - जब - जब तू
काम पर जाता था।
मैं चुप - चाप कुएँ में
उतर जाता था।
दिन का एक
घंटा रोज मैं।
लगाता था तेरे
सिक्कों की खोज में।
इतना सुनते ही बेटे के जीवन के
सारे ग़म कम हो जाते हैं।
खुशियों से उसकी आँखें
नम हो जाते हैं।
पिता का प्रेम जगाता है,
बेटे में हिम्मत।
बेटे को समझ आ जाता है,
उन पैसों की कीमत।
-दीपक कुमार साहू
-Deepak Kumar Sahu
05/04/2015
05:00 PM
Very well done Deepak ..what a story. Emotional and inspiring 👍
ReplyDeleteThanks a lot Amrita😇😇
DeleteA beautiful poem with a very strong message. Loved reading it!Great work👍
ReplyDeleteThank you so much 😇
DeleteVery heart touching bhai....
ReplyDeleteThanks a lot bhai😇
DeleteWow, this one is awesome
ReplyDeleteThanks Shashwat bhai😇
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