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कहानी अभी खत्म नहीं हुई है - अध्याय 1



अध्याय 1
"जिंदगी हमारे साथ बहुत अज़ीब खेल खेलती है।" लोग मुझसे पूछते हैं कि दीपक तुम ये कविताएँ और कहानियाँ कैसे लिख लेते हो? और मैं जब उन्हें जवाब देता हूँ, तब मेरे जवाब का पहला वाक्य वही होता है जो मैंने इस कहानी के पहले पंक्ति में लिखा है।
आपको पहले मैं ये बता दूँ कि ये कहानी, कहनी नहीं बल्कि हकीक़त है। यह कहानी शुरू होती है 6 मई 2015 से क्यूँकि इसी दिन मेरा दस दिन का वो रोमांचक सफर शुरू हुआ। ये दिन इसलिए भी यादगार है क्यूँकि इस दिन चार साल बाद मैंने ट्रेन के अंदर कदम रखा था। करीबन चार साल बाद मैं अपने बिहार जा रहा था। जाते वक़्त मुझे पता नहीं था कि लौटकर मुझे एक कहानी लिखने का सार मिल जाएगा।
मैं, मेरी माँ, मेरे पिता और मेरा भाई पवन सभी करीबन साढ़े आठ बजे सम्बलपुर स्टेशन से इस्पात सुपरफास्ट एक्स्प्रेस से रवाना हुए। रवाना होने की इतनी जल्दी क्या है, रवाना कैसे हुए ये भी सुन लीजिए। मैं एक टी - शर्ट और जीन्स के साथ बाईं कलाई पर मेरी प्रिय घड़ी पहने खड़ा था। और मेरा भाई नीली टी - शर्ट, जीन्स और महँगे जूते पहन खड़ा था। साथ ही साथ उसने एक ऐनक भी लगाई थी। जिसे वो बार बार निकालता पहनता रहता था और कभी गले के नीचे टी - शर्ट में लगा लेता। जिस तरह सलमान खान शर्ट के पीछे लगाता है, बस मेरे भाई ने आगे लगा रखा था। हम सब ट्रेन की आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। गाँव जाने का ये प्रयोजन एक खास मकसद से बना था। मेरे पिता के एक बड़े भाई और एक बड़ी बहन हैं यानी कि मेरी बुआ, उनका विवाह एक शिक्षक से हुआ था जो कि अब प्रधानाध्यापक हैं।उनके बड़े बेटे श्याम कुमार का विवाह 10 मई को निर्धारित हुआ था। मेरे पिता ने बुआ को कहा था कि अगर बच्चों की शादी करें तो गर्मियों में करें ताकि पूरा परिवार गर्मियों की छुट्टियों में घुम आए अन्यथा उन्हें अकेले ही आना पड़ता। सही समय पर रेलगाड़ी प्लेटफॉर्म न. 2 पर खड़ी हुई। सभी भगा दौड़ी करने लगे क्यूँकी ये ट्रेन ज्यादा देर नहीं रुकती थी। हम भी तेजी से भागने लगे। इसी बीच जो चश्मा पवन ने टी - शर्ट के आगे लगा रखी थी, वह गिर पड़ी। उसे पता भी नहीं चला, पीछे उसके मैं आ रहा था, इसीलिए मैंने वो चश्मा उठा लिया। शूकर है भगवान का किसी की लात नहीं पड़ी। हम रेलगाड़ी के रिसर्वेशन के डब्बे में घुसे। अपनी सीट तलाशी। तो देखा एक आदमी पहले से वहाँ बैठा हुआ है।
हमने कहा भैयाजी, यह हमारी सीट है। तो उसने कहा हम पहले से रुमाल रख कर बैठ गए हैं। फिर हमने कहा कि ये रिसर्वेशन बोगी है। यह कहते हुए पापा ने टिकट निकाल ली।आसपास के लोगों ने भी कहा कि ये रिजर्व सीट है। तब बिचारा शायद शर्मिंदा होकर पूरी बोगी छोड़कर निकल गया। फिर हम आराम से बैठ गए। फिर गाड़ी चली गाड़ी को चले ठीक से दो मिनट भी नहीं हुआ था कि मम्मी पापा दोनों कहने लगे खाना खा लो। मुझे बड़ा ही अजीब लगा। मैंने कहा कि अभी - अभी ही तो नाश्ता खा कर निकले थे। मैंने सीधे मना कर दिया। फिर मुश्किल से पाँच मिनट हुए होंगे कि फिर से पापा - मम्मी वही राग अलापने लगे। मैंने सोचा इनकी तृप्ति हेतु खा ही लेना चाहिए। पूरी, आलू की सब्जी और आचार हम सभी ने खा लिया।
धीरे धीरे समय बीतने लगा। एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन तक, हम बढ़ते गए। बाहर खिड़की से देख - देख मैं समय बिताने लगा। अंदर अलग अलग किस्म के मुसाफिर, खाना बेचते लोग। खिड़की के अंदर और बाहर की इस अनुभूति ने मुझे एक कविता लिखने को प्रेरित किया। जिसे मैंने गाँव से वापस आकर पूर्ण किया। हम दोपहर के करीब दो बजकर पैंतालीस मिनट पर टाटा - जमशेदपुर स्टेशन पहुँचे। यह बिल्कुल सही समय था।
हम ट्रेन से उतरकर प्लेटफॉर्म न. 1 पर पहुँचे। हमारी अगली ट्रेन थी रात के नौ बजकर पैंतीस मिनट पर। हम वहीं स्टेशन पर इंतज़ार करते रहे। मैं और मम्मी स्टेशन पर रुके। पापा और पवन होटल में खाना खाने गए। लौटते वक़्त वे हमारे लिए भी खाना लेते आए। हमने खाना खाकर विश्राम किया। फिर मैंने अपनी माँ के हाथों में मेहंदी लगाई। जल्दी जल्दी में वो मेहंदी लगाना भूल गई थी। अक्सर मैं ही माँ को मेहंदी लगाया करता हूँ। खैर, हम कहानी में वापस आते हैं। स्टेशन में ही खाना खाकर मैं किताबें पढ़ने लगा। शाम हुई, फिर रात, एक के बाद एक ट्रेन का आना। हजारों लोगों का अपने सामने से गुजरते देख मैं पक चुका था।
फ़िर रात के नौ बजकर पैंतीस मिनट हुए। ट्रेन सही समय पर स्टेशन पर आ खड़ी हुई। हम सभी अपनी सीट पर जाकर बैठ गए। खाना पीना कर के सो गए। जब सुबह नींद खुली तो देखा कि लोग आकर सामान्य बोगी की तरह ही बैठ रहे हैं। जब उन लोगों को कहा कि यह सीट रिजर्व है तब वे लोग कहने लगे "आँख खोलो बाबू, आप बिहार में दाखिल हो चुके हो। यहाँ कोई नियम नहीं मानता। रिजर्व होगी तो होगी, दिन में कोई नहीं मानता। रात नौ बजे से पहले लोग इसे भी सामान्य बोगी ही मानते हैं। मैं नितक्रिया पूरा कर जब खिड़की के पास जाकर बैठा तब जाकर मुझे एहसास हुआ कि हाँ, हम सचमुच बिहार में हैं। बाहर खेतों में काम करते लोग। भूसा के लिए गोलाकार झोपड़, घर - घर में गाय और मांद, छत के घेरों में छत से टंगे भुट्टे, सुबह सुबह दातुन करते लोग। इन नजारों ने साबित कर दिया कि मैंने सही सुना है, बिहार तो पहुँच गए।
अब इंतज़ार था तो बेगूसराय स्टेशन का, जो बरौनी के बाद पड़ता है। सफर की शुरुआत से जितने भी ट्रेन में सफर किया वो तो सही समय चली और पहुँची, इससे भी यही उम्मीद थी। पर चूँकि हम बिहार में थे, कुछ भी कहना सही नहीं था। वही हुआ। हम करीबन एक से डेढ़ घंटे विलंब से बेगूसराय पहुँचे। ट्रेन के हर दरवाजे पर करीबन पचास आदमी चढ़ने हेतु जुट गए। हमारे उतरने से पहले ही लोग चढ़ने लगे। नियमानुसार पहले यात्रियों को उतरने देना चाहिए। हमें उतरने में काफी मेहनत करनी पड़ी और मैं समझ गया कि,,
ये बिहार है बेटा!! कहानी अभी खत्म नहीं, शुरू हुई है…..

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