मैं कुछ क्षण के लिए अचंभित रह गया फिर मुस्कराते हुए कहा - नहीं। वह बोला सच बोलिए। मैंने कहा सच बोल रहा हूँ। फिर वह बोला - मेरी एक जी. एफ. है ।मैं बोला - क्या? फिर वह बोला - एक लड़की से मैं करता हूँ। पर मुझे नहीं पता कि वो मुझसे करती है कि नहीं? मैंने पूछा - कहाँ पर रहती है वो? तब उसने बताया कि सिक्किम में। मैंने फिर उसका नाम पूछा। तब उसने बताया कि उसका नाम दृश्या है - उसने धीमे स्वर में कहा। मुझे ठीक से सुनाई नहीं दिया। मैं बोला क्या? क्रिस? फिर उसने कहा क्रिस नहीं दृश्या। मैंने कहा क्या? दिशा? उसने कहा दिशा नहीं दृश्या। आपका कान खराब हो गया है। मैंने कहा - वह नेपाली है ना? तो वो बोला नहीं। वह भी बाहर से आई है मेरी तरह। इस पाँचवी कक्षा के छात्र ने मुझे बड़ा प्रभावित किया मैं मन में हस्ते हुए कहने लगा इक हमारी ही जिंदगी तन्हा रह गई।
मैंने एक लेखक की तरह आलोक की मानसिकता पर शोध करना चाहा। हमारी बातें चलती रहीं। उसने कहा - आपको आपके दोस्त चिढ़ाते हैं? मैंने कहा - अभी तो नहीं पर पहले बहुत चिढ़ाते थे। मैंने यही सवाल उससे किया। उसने कहा कि "हाँ मेरे दोस्त मुझे आलू कहकर चिढ़ाते हैं। फिर उसने कहा आपको गुस्सा नहीं आता? मुझे तो मन करता है कि बहुत मारूं उन सब को। तो मैंने उससे पूछा -" तो चिढ़ाने पर मार देते हो?" तो उसने कहा नहीं। मेरे पास भी उनके चिढ़ाने वाले नाम हैं। पहली चीज जो मैंने गौर की कि आलोक बहुत क्रोधित हो जाता होगा।
मैंने उससे कहा पहले - पहले मुझे भी बहुत गुस्सा आता था और तो और मेरे पास उनको चिढ़ाने के लिए नाम भी नहीं था। इसी चीज पर हमारी हिंदी की अध्यापिका चर्चा कर रही थी। उन्होंने कहा कि कोई तुम्हें चिढ़ाए तो तुम प्रतिक्रिया नहीं करना क्योंकि तुम्हारी प्रतिक्रिया धीरे-धीरे उन्हें उत्साहित करता है तुम्हें और चिढ़ाने के लिए।
मैंने फिर आलोक को बताया कि जब मैं आठवीं कक्षा में था तब मैं बहुत मोटा था। मेरे दोस्तों ने मेरा नाम पेटू रख दिया था। पर अध्यापिका की बात मानकर मैंने खुदको नियंत्रित करना चाहा। शुरू शुरू में बहुत तकलीफ हुई पर धीरे धीरे मुझे आदत हो गई। मेरे दोस्त मुझे जब भी पेटू कहकर बुलाते, मैं सुनता था और मेरे सर पर कोई शिकन भी नहीं रहता था।
बातें करते करते शाम हो गई। शाम को और एक मेहमान का आगमन हुआ और वो थे बड़े बाबुजी और बड़ी माँ और साथ में उनकी बहन की बेटी रानी। मेरे बड़े बाबुजी, बड़ी माँ और रानी सम्बलपुर से हम लोगों से करीब दस दिन पहले निकल चुके थे। वे सभी बाबा धाम घुमकर पहले यहाँ पहुँचे थे और यहीं से गाँव कटरमाला चले गए थे। वहाँ हमारा अपना घर है। यह तीन लोग वहीं से आए थे। मैंने ऊपर से ही उनकी आवाज सुनी और मैं और आलोक नीचे गए। हम दोनों ने उन दोनों के चरण छुए। वे भी हमें देखकर बहुत खुश हुए।
फिर मैंने बड़े बाबुजी को बताया कि रानी की परिक्षा का परिणाम आ गए हैं। उन्हें यह जानकर खुशी हुई कि रानी पास हो गई है। फिर रात हुई और सोने से पहले हम खाना खाकर तैय्यार हो गए। सोने से पहले हरेक के मन में सवाल उठा कहाँ सोएं? नीचे वाले कमरे में? ऊपर वाले कमरे में या छत पर?
आपको बता दूँ कि इतना बड़ा शहर होने के बावजूद बेगूसराय में 24 घंटे बिजली नहीं रहती। दिन में एकाध घंटा ही मिलती है बिजली। वह भी बार बार आती जाती रहती है। इसलिए नीचे गर्मी में सोना मुश्किल था। हिसाब किताब लगाकर मैंने छत पर सोने की ठानी क्यूँकि इस ऊँचाई पर मच्छर भी नहीं आ सकते। रात में छत पर ठंडी हवा भी चलेगी। कई लोग ऊपर ही सोए।
फिर मैं गहरी नींद में सो गया। फिर मेरी आँख खुली। पता चाला कि मेरे साथ सोए सभी लोग गायब हैं। आज 8 मई थी। हर दिन की तरह मुझे लगा कि आज भी सबसे देर उठा। फिर इधर उधर नजर दौड़ाई तो बात समझ में आई कि एक और था जो मेरे उठने के बाद भी सोया हुआ था और वह था आलोक। मैं नीचे गया। अपने नित्य कर्म समाप्त किए। फिर सुबह का नाश्ता किया। उसके बाद मैं दूसरे माले पर कुर्सी लगा कर बैठ गया। उस जगह से मैं आसपास के घरों का मुआवना करने लगा। तब मैंने देखा कि उस घर के पीछे एक छोटा सा झोपड़ सा घर है। पीछे की ओर एक बड़ा घर है जिसमें पचासों बच्चे रहते थे। शायद कोई अनाथालय होगा। आगे गोदाम के बाएं तरफ एक गैरेज थी। जिसमें काम करने वाले लोग पीछे की ओर वाले घर में रहते थे। तभी मेरे पिताजी आ गए और उन्होंने कहा : "सिद्धार्थ का फोन आया था तेरे लिए" । कहानी अभी खत्म नहीं हुई है….
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