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Pic Credit : Shiva Rajak |
सोच के तारे है तंग,
है कोई नहीं अब संग,
महसूस हो रही है ख़ामोशी,
लग रही है, ज़िन्दगी बदरंग।
निराशा ही आशा है, साथ में।
उड़ रही कहाँ ये टूटी पतंग,
खिला था फूल ये कभी रास्ते में,
मुरझा रहा, हो रहा ये बदरंग।
ओस की बूँद थी, उम्मीद ये,
कोहरा हटा जब चेहरों से,
मिट गयी सारी खुशियों की उमंग,
पहले भी थी, अब भी है, कलि बदरंग।
खुले समुन्दर के किनारे में,
हम हस्ते थे, उन गलियारों में,
रहते थे किसी के सहारों में,
पर कहा खो गई वो दुनिया,
सोच के हो रहा हूँ मैं दंग,
अफ़सोस है, हो गई फिर से
वो हँसी बदरंग।
खिलखिला के भी रोया करता था कभी,
आँसुओं को भी पी कर चखा करता था कभी,
नमकीन थे आँसू उन मस्तियों भरी जंग में,
अब भी नहीं है नमक की कमी, मेरे अक्ष में,
आँसू भी हो गए बदरंग।
कहीं खो गयी है वो दुनिया,
फिर से कहीं उन गलियारों में,
अब हम दूर ही अपनों से रहते हैं,
पर्वों में त्योहारों में।
शिवा रजक।
10th September 2018.
10:38 am.
63th poem.
Beautiful narration. Really liked the way colors are used as symbols for various situations in life.. Good job. Keep Writing.
ReplyDeleteThank you bhaiya☺️☺️
DeleteMast h bhai..😘😘
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