रिक्शा में बैठ मैं
भीषण दोपहर में।
कर रहा था विचरण
अनजाने शहर में।
इसी बीच शहर के बीच
एक चौराहा आया।
ईश्वर के आशीष जैसे
हाथों ने हमें अटकाया।
दोपहर के बारह बजे
सहकर इतने ग्रीष्म को।
खड़ा था एक ट्राफिक पुलिस
काया मानो भीष्म हो।
कड़ी धूप को शायद उसने
मान लिया था जन्नत।
इसीलिए अविरल अकेले
कर रहा था इतनी मेहनत।
कभी हाथ दिखाकर
एक तरफ को रोकना।
नियम तोड़ने पर
दुष्ट लोगों को टोकना।
किसी ओर भीड़ ना हो जाए
हर वक़्त रखता वो इसका खयाल।
भले ही चिल्ला - चिल्ला कर
होय बेहाल खुद का हाल।
इसके आगे और क्या सुनाऊँ
उस भीष्म की कहानी।
कड़ी धूप में सर से पाँव
पसीने से पानी - पानी।
देख कर लगा उसे
थकान और गुस्से में चूर होगा।
प्रचुर हिम्मत वाला ये इंसान
मशहूर तो नहीं मगरूर होगा।
इसी बीच धीरे-धीरे एक ओर से
एक स्कूल बस गुजारता है।
उसमें बैठा हर बच्चा हस्ते हुए
उस पुलिस को टाटा - टाटा करता है।
खिड़की से हाथ निकालकर
बच्चे करते अपनी खुशी का निष्पादन।
हँसते हुए ट्राफिक पुलिस आगे आकर
करता उनका अभिवादन।
शायद बच्चों की खुशी से
दूर होती होगी उनकी थकान।
भर देती होगी उसमें
नयी उमंग और मीठी मुस्कान।
उस पुलिस के जीवन में
जब बढ़ता होगा दुख का अंधेरा
हँसी और मुस्कान बनकर दीपक
लाता होगा सुख का सवेरा।
इतना हुआ ही था कि
हमें जाने की मिली अनुमती।
मैं हँसकर बोला कड़ी धूप में
मारी गई थी मेरी मति।
उस पुलिस की काया देख मैंने
मान लिया मगरूर था।
अब समझ में आया मैं तो
सच से कितना दूर था।
-दीपक कुमार साहू
-Deepak Kumar Sahu
02/06/16
10:29:05 PM
Keep up the good work...
ReplyDeleteThank you so much bhai😇
DeleteNice thought..
ReplyDeleteThanks 😇
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