कई सालों से हमारी - तुम्हारी सेवा में अर्पण। भारतीय रेल तीन शब्दों में देश का दर्पण। प्लेटफॉर्म में ट्रेन आते ही एक दफा मैंने मौके पे, सीट रोकी रुमाल फेंककर इक झरोखे से। रेलगाड़ी में बैठकर मैं जा रहा था अपने घर। भारत देश का पूरा सच आ रहा था मुझे नज़र। बोरियत दूर करने का एकमात्र सहारा। खिड़की के बाहर वो बदलता नज़ारा। बाहर थे कई बड़े घर और बड़े होटल आलीशान। साथ ही खपरैल और झोपड़ में तड़पती उस गरीब की जान। धरती से आसमान तक बढ़ता उद्योग। हरियाली को खाता जाता, जंगल और गाँव में ये रोग। कभी मिली ठंडी हवा, कभी दिखा प्रकृति का शोषण। बदलती जलवायु और पलपल पनपता प्रदूषण। कभी साफ जलाशय इतना कि दिख जाए उसका तल। कभी ना चेहरा दिखने पाए!! इतना भी गंदा होता है जल… देखने के बाद बाहर का हाल। मैंने किया अपने सिर को अंदर की ओर बहाल। अब सुनाता हूँ आपको खिड़की के अंदर का सार। अंदर के लोगों का अलग था वेश विभिन्न था प्रकार। ये समाज के वो लोग थे जिनकी ये थी दुविधा। कि सारे नियम कानून के ऊपर थी उनकी अपन
The 'Poet' made the 'Poem' &
The 'Poem' made the 'Poet'