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Showing posts from May, 2019

देश का दर्पण

कई सालों से हमारी - तुम्हारी सेवा में अर्पण। भारतीय रेल तीन शब्दों में देश का दर्पण। प्लेटफॉर्म में ट्रेन आते ही एक दफा मैंने मौके पे, सीट रोकी रुमाल फेंककर इक झरोखे से। रेलगाड़ी में बैठकर मैं जा रहा था अपने घर। भारत देश का पूरा सच आ रहा था मुझे नज़र। बोरियत दूर करने का एकमात्र सहारा। खिड़की के बाहर वो बदलता नज़ारा। बाहर थे कई बड़े घर और बड़े होटल आलीशान। साथ ही खपरैल और झोपड़ में तड़पती उस गरीब की जान। धरती से आसमान तक बढ़ता उद्योग। हरियाली को खाता जाता, जंगल और गाँव में ये रोग। कभी मिली ठंडी हवा, कभी दिखा प्रकृति का शोषण। बदलती जलवायु और पलपल पनपता प्रदूषण। कभी साफ जलाशय इतना कि दिख जाए उसका तल। कभी ना चेहरा दिखने पाए!! इतना भी गंदा होता है जल… देखने के बाद बाहर का हाल। मैंने किया अपने सिर को अंदर की ओर बहाल। अब सुनाता हूँ आपको खिड़की के अंदर का सार। अंदर के लोगों का अलग था वेश विभिन्न था प्रकार। ये समाज के वो लोग थे जिनकी ये थी दुविधा। कि सारे नियम कानून के ऊपर थी उनकी अपन

कहानी अभी खत्म नहीं हुई है - अध्याय 1

अध्याय 1 "जिंदगी हमारे साथ बहुत अज़ीब खेल खेलती है।" लोग मुझसे पूछते हैं कि दीपक तुम ये कविताएँ और कहानियाँ कैसे लिख लेते हो? और मैं जब उन्हें जवाब देता हूँ, तब मेरे जवाब का पहला वाक्य वही होता है जो मैंने इस कहानी के पहले पंक्ति में लिखा है। आपको पहले मैं ये बता दूँ कि ये कहानी, कहनी नहीं बल्कि हकीक़त है। यह कहानी शुरू होती है 6 मई 2015 से क्यूँकि इसी दिन मेरा दस दिन का वो रोमांचक सफर शुरू हुआ। ये दिन इसलिए भी यादगार है क्यूँकि इस दिन चार साल बाद मैंने ट्रेन के अंदर कदम रखा था। करीबन चार साल बाद मैं अपने बिहार जा रहा था। जाते वक़्त मुझे पता नहीं था कि लौटकर मुझे एक कहानी लिखने का सार मिल जाएगा। मैं, मेरी माँ, मेरे पिता और मेरा भाई पवन सभी करीबन साढ़े आठ बजे सम्बलपुर स्टेशन से इस्पात सुपरफास्ट एक्स्प्रेस से रवाना हुए। रवाना होने की इतनी जल्दी क्या है, रवाना कैसे हुए ये भी सुन लीजिए। मैं एक टी - शर्ट और जीन्स के साथ बाईं कलाई पर मेरी प्रिय घड़ी पहने खड़ा था। और मेरा भाई नीली टी - शर्ट, जीन्स और महँगे जूते पहन खड़ा था। साथ ही साथ उसने एक ऐनक भी लगाई थी। जिसे वो बा

लड़कपन में

लड़कपन में प्रिय के गीत गा रहा हूँ, मैं डगमगा रहा हूँ, लड़कपन में, खो बैठा हूँ होशोहवास, मैं सम्भाल नही, सिर्फ इतरा रहा हूँ, मैं डगमगा रहा हूँ। प्रिय को भी कर रहा हूँ परेशान, माँ पे भी चिल्ला रहा हूँ, मैं बेमिज़ाज़ हो रहा हूँ, मैं डगमगा रहा हूँ। अस्तित्व भूल गया हूँ, खुद को बीरबल सा ज्ञानी, या कोई नायाब सा अवतार समझ रहा हूँ, मैं गलत हूँ न, हाँ मैं डगमगा रहा हूँ, लड़कपन में मैं, लड़कपन में प्रिय, दूर सब से बिछड़ रहा हूँ, मैं छिड़ रहा हूँ,। लड़कपन में प्रिय के गीत गा रहा हूँ, मैं डगमगा रहा हूँ।.. -Shiva Rajak 27may 2019